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आँख को उस सम्त के मंज़र नज़र आयेंगे क्या / 'महताब' हैदर नक़वी

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आँख को उस सम्त के मंज़र नज़र आयेंगे क्या
आँसुओं की बाड़ से यूँ ही ग़ुज़र पायेंगे क्या
 
कर लिया महसूस ख़्वाबों के दरीचे से उसे
वो तो ख़ुशबू है, भला ख़ुशबू को छू पायेंगे क्या
 
आसमानों से वही आने का मौसम है मगर
इस ज़मी के लोग इतना बोझ सह पायेंगे क्या
 
आस्तीनों में हमारे बुत अभी महफ़ूज़ हैं
हम तो ज़िन्दा हैं तो फिर इनसे मफ़र1 पायेंगे क्या
 
रात के पहलू रहकर हो गये उनके असीर
चाँद-तारे अब भला दिन में नज़र आयेंगे क्या

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