भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भरम / शर्मिष्ठा पाण्डेय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:31, 3 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शर्मिष्ठा पाण्डेय }} {{KKCatGhazal}} <poem> मंड...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मंडी सजाये बैठे हैं ईमानदार लोग
कुछ तो तवायफों को भरम रहने दीजिये
माना कि बिकता सौदा है मुंह-मांगे दाम पे
इक ज़रा मिल्कियत की शरम रहने दीजिये
कू-ए-निगाराँ में लगी क्या खूब नुमाइश
कुछ पाक से जज्बों पे रहम रहने दीजिये
अब बे-अमां तो शपा का किरदार नहीं है
बस आप पुख्तगी का वहम रहने दीजिये
फिर आज जज्बे-सख्त से दिल तार-तार है
कोने में कहीं गोशा-नरम रहने दीजिये
कू-ए-निगाराँ= महबूबों की गली
बे-अमां= आश्रयहीन)