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निंदा, दुःख, अपमान के / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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निंदा, दुःख, अपमान के
चोट चाहे हम जेतना खाई
हम जानऽ तानी कि ओसे कुछ
हमार बिगड़ी नाहीं।
धूरा-मटी मेभें बइठे के पड़े
तबहूँ हम आसन के चिंता ना करीं।
दीन-हीन दश मेभें भी
खाली तहरा कृपा के प्रसाद चाहीं।
लोग जब हमार बड़ाई करेला
हमरा इर्द-गिर्द सुख के मेल लग जल
तबो हम खूब जानीले
कि ई सब खाली धोखा ह।
बाकिर एह धोखा भरल सुख से
हम एतना अगरा जाइले
कि जहाँ-तहँ भटके लगिले
आ तोहरा लगे आवे के मोके ना मिले।