भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गुल-ए-मौसम खिला है / नीना कुमार
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:32, 14 अगस्त 2013 का अवतरण
गुल-ए-मौसम खिला है
औ मुस्कुराने की वजह है
हाय नाकामी-ए-दिल मगर
बहुत अफ़सुर्दा सुबह है …
मिज़ाज बादलों का भी आज
आदमी की तरह है
बरसना चाहता है पर
खड़ा अपनी जगह है
बहुत खोलीं है हमने पर
उलझी हर गिरह है
थके सूरज की मानिंद
मजबूरियों से सुलह है
सितारों में चमक थी के
फ़लक-ए-शब् सिआह है
फिक्र तुमको मेरी अगर
तो क्यों इतनी जिरह है
रचनाकाल: 13/8/2013