भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अर्थहीन नहीं है सब / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
					Lalit Kumar  (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:42, 28 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जब ज़मीन है
और पाँव भी
तो ज़ाहिर है
हम खड़े भी हैं।
जब सूरज है 
और आँखें भी 
तो ज़ाहिर है
प्रकाश भी है।
जब फूल है
और नाक भी 
तो ज़ाहिर है 
खुशबू भी है
जब वीणा है
औन कान भी
तो ज़ाहिर है
संगीत भी है
जब तुम हो
और मैं भी 
तो ज़ाहिर है
प्रेम भी है
जब घर है और 
पड़ोस भी 
तो ज़ाहिर है
समाज भी है
जब यह भी है
और वह भी 
यानी नल भी 
जल भी और घड़ा
भी 
तो ज़ाहिर है 
घड़े में जल है
अर्थ की तरह 
आदमी है समाज में
हर प्रश्न के 
हल की तरह।
	
	