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यौवन और वर्तमान / प्रताप सहगल

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यौवन ज़िन्दगी को
वर्तमान की खिड़की से देखता है
और वर्तमान
ज़मीन की सतह से उभरी
कोई चट्टान नहीं
जो सदियों तक देखती रहे
खुद का रेतना
और समय का रीतना।

वर्तमान एक मछली है
हाथ में आया
और फिसला
यौवन से छलछलाती
मुट्ठियों की गिरफ्त
कितनी ही मज़बूत क्यों न हो
फिसल जाता है वर्तमान
और
यौवन का उद्दाम आवेग
फिर भी जाता है वर्तमान।
टुकड़ा-टुकड़ा वर्तमान।

वह वर्तमान से शुरू करता है
अपनी यात्रा
रुकता है वर्तमान में ही
वहीं बनाता है पड़ाव
वहीं उठाता है सवाल
वहीं लड़ता है
अपने पारदर्शी अस्तित्व की महीन बुनावट से
और वर्तमान के एक तालाब से
दूसरे तालाब तक तैरता
निकल जाता है
किसी भी मनचाही दिशा में
वहां भी/जहां तालाब नज़र नहीं आता
और वह तालाब बना लेता है।

एक तालाब से दूसरे
दूसरे से तीसरे तालाब में पहुंचता है,
उसकी यह यात्रा
वर्तमान को अतीत करने की नहीं
वर्तमान से वर्तमान तक की यात्रा है
तालाब से तालाब को जोड़कर
वह समुद्र की भव्य दुनिया में उतरता है
और टुकड़ा-टुकड़ा वर्तमान
उसके लिए महावर्तमान बनकर उभरता है।