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पुरी का समुद्र-तट: एक शाम / प्रताप सहगल

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(एक)
कृष्ण पक्ष की शुरुआत
पिघला हुआ इस्पात
हवा में बांहें फैलाकर
बार-बार
आ रहा है मिलने
अपनी प्रेयसी से
प्यार या ढिठाई
मैं नहीं जानता
चाहता हूं जानना
इस्पाती बाज़ू उठा ललकारते
फेंकते चुनौतियां
कौन हो तुम?
तुम हो अगर समुद्र
तो फिर
मैं क्या हूं !

(दो)
एक लम्बा अंधेरा
एक चुप ब्रह्म-दानव
बार-बार नाच-नाचकर आती आंखें
किसे लीलना चाहती हैं।