आज़ादी का सिर / प्रताप सहगल
हम सब
कोई-न-कोई मिथ लेकर जीते हैं
मिथ हमें आदिम युग में ले जाता है
आदिम युग हमारी धमनियों में बहता है
आदिम युग हमें
जंगल की आज़ादी देता है
आदिम युग मिथ बनाता है
हम आदिम युग को जेबों में भरकर
बड़े होते हैं
भुरभुरी रेत पर ज़ोर से पांव जमाकर
खड़े होते हैं
धंसते चले जाते हैं रेत में
कहीं पाताल में उतरते हैं
और मिथकों और स्वप्नों के सहारे
हम लम्बी यात्रा करते हैं
अपनी यात्रा के वर्तमान पड़ाव में
हम खुद को आधुनिक महसूस करते हैं
आने वाली सदियां
हमें आदिम मानेंगी
आदिम युग से वर्तमान की यात्रा तक
एक मिथ हमने सदा पाला
आज़ादी का मिथ
पूरी आज़ादी
पर सच तो यह है दोस्त
पूरी आज़ादी भी सिर्फ एक मिथ है
आज़ादी जब भी उतरती है
कहीं हमारी धड़कनों में
उसका सिर कटा होता है
आप भी ढूंढिए मेरे साथ
कि आज़ादी का सिर
आखि़र है कहां?