भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहचान / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:33, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=अंध...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधेरे की चादर से घिरे
इस आदमी को पहचानो
रामदीन है यह
नहीं, यह तो इब्राहिम है
यह जानी का पुराना संस्करण है
नहीं ओ नहीं
यह मनमीत सिंह है
अंधेरे की चादर से घिरा आदमी
खामोश है
वह नहीं
उसकी पेशानी पर फैली लकीरें बोलती हैं
वह नहीं
टोपी से झांकते उसके बाल बोलते हैं
वह नहीं
उसके स्वेटर के तार-तार बोलते हैं-
मुझे किसी मत से न पहचानो
मैं आदमी हूं
आदमी की परम्परा का
मुझे आदमी ही मानो।