भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेटा / शशि सहगल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:04, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि सहगल |अनुवादक= |संग्रह=मौन से स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोख का सुख
लोक का सुख
परलोक का संभावित सुख
सभी कुछ पाया
जब बेटा जना मैंने
आशीषों की वर्षा से
भीग उठी मैं
बेटा पा जी उठी मैं।
बीतता रहा समय
बदलते गये कैलेण्डर
और आज जब
बाप का जूता पहना है उसने
उद्विग्न सी घूम रही हूँ मैं
खुश होने के बजाय
सहम गई हूँ, उसका बदलाव देखकर
क्यों अपरिचित हो गया है वह
किसने छीन ली है उसकी छुअन मुझसे
समय ने!
पूछती हूँ एक सवाल आपसे
बेटा बड़ा हो कर
आदमी क्यों बन जाता है?