भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मृत्यु-सागर कहीं भीतर / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:40, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर समय
लहरा रहा है
मृत्यु का सागर कहीं भीतर हमारे
 
धार पर चढ़कर उसी की
साँस को हम साधते हैं
रात-दिन इच्छाओं का हम
पुल उसी पर बाँधते हैं
 
उसी से हैं
घूँट अमृत के मिले
या मिले आँसू हमें खारे
 
चाँद की परछाइयां
या धूप की दहकन
उसी ने है सँवारी
धड़कनों की सभी नौकाएँ
वहीं हमने उतारीं
 
देव-असुरों के
हुए संग्राम कितने
हाँ, उसी सागर किनारे
 
जन्मदिन हमने मनाए
उसी तट पर
कभी जागे- कभी सोये
यहीं सिरजे गीत हमने
संग उनके हँसे-रोये
 
और जूझे हैं
समय से उम्र भर हम
उसी तीरे - कभी जीते-कभी हारे