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घुप अँधेरा / कुमार रवींद्र
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घुप अँधेरा
और सोई हुई घाटी
झील के तट पर खड़े हैं थिर शिकारे
दूर पर्वत के सिरे पर
कौंध बिजली की दिखी है
सोनरेखा से किसी ने
लगा, रितु-गाथा लिखी है
उधर जंगल में
हवा ने करवटें लीं
कहीं मोहन-मंत्र वंशी ने उचारे
अभी है एकांत चारों ओर
सुख भी हैं अधूरे
उमस है आबोहवा में
अभी होंगे स्वप्न पूरे
आएगी बरखा
उमड़कर
एक छोटी-सी घटा उमगी किनारे
झील पर है गिरी पहली बूँद
औचक मोर कूका
बादलों के देवता ने
लो, गरजकर शंख फूँका
जग गया है
कहीं बच्चा एक
बरसों बाद, लो, भीतर हमारे