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सुनो बंधु, हम / कुमार रवींद्र
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सुनो
बंधु,हम
महाकाल के रथ से बँधे हुए
घटनाओं के चक्रव्यूह में
खोज रहे सूरज
लदा रहा कंधों पर अपने
इक झूठा अचरज
रहे न घर के
नहीं घाट के
हम वे गधे हुए
पढ़े साँस में जो लिक्खे हैं
विपदा के लेखे
उलटे-सीधे धूप-छाँव के
खेले भी देखे
जोकर देखे
हमने
सिंहासन पर लदे हुए
रथ के पहिये घूम रहे हैं
हम भी घूम रहे
कौन घुमाता स्रष्टि-चक्र को
है यों- कौन कहे
लय-सुर
जो भी हैं उसके
वे सब सधे हुए