भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जला दो उर मेरे विरहानल / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:56, 16 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जला दो उर मेरे विरहानल।
प्रियतम! बिना तुम्हारे, बीते दु:खमय युग-सम मेरा पल-पल॥
भोगासक्ति-कामना-ममता जग-ज्वालाएँ सब जायें जल।
मिट जाये सब दुःखयोनि आद्यन्तवन्त भोगोंका अरि-दल॥
जाग उठे दैवी गुण, हो वैराग्य-राग-रंजित अन्तस्तल।
मिलन तुम्हारा हो, मिल जाये मानव-जीवनका यथार्थ फल॥