भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ईसुरी की फाग-3 / बुन्देली

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:24, 13 जुलाई 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

मोरी रजऊ से नौनों को है

डगर चलत मन मोहै

अंग अंग में कोल कोल कें ईसुर रंग भरौ है ।

मन कौ हरन गाल कौ गुदना, तिल सौ तनक धरौ है ।

ईसुर कात उठन जोबन की, विरहा जोर करौ है ।


भावार्थ


मेरी रजऊ से सुन्दर कौन है ? रास्ते चलते मन मोह लेती है । ईश्वर ने उसके अंग अंग को तराश कर रंग भरा है ।

उसके गाल का गुदना छोटे तिल-सा लगता है । देखो, ईसुर ! उभरते यौवन को विरह कैसे सता रहा है ?