भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुरलिया! मत बाजै अब और / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:06, 7 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुरलिया! मत बाजै अब और।
हर्‌यौ सील-कुल-मान, करी बदनाम मोय सब ठौर॥
रह्यो न मोपै जाय, सुनूँ जब तेरी मधुरी तान।
उमगै हियौ, नैन झरि लागै, भाजन चाहैं प्रान॥
कुटिल कान्ह धरि तोय अधर पर राधा-राधा टेरै।
रहै न मेरौ मन तब बस में गिनै न साँझ-सबेरै॥
घर कौ काम, सास-पति-सेवा, सब कौ मोह बिसार।
करनौ परै मोहि बरबस तब मोहन हित अभिसार॥
बंसी सखी! बिनय सुन मेरी, तजि दै यह उतपात।
वा छलिया के बस ह्वै मो पै मती करै तू घात॥