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उदय हु‌ए जब श्रीवृन्दावन-चन्द्र / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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उदय हु‌ए जब श्रीवृन्दावन-चन्द्र पूर्णतम चन्द्रस्वरूप।
उज्ज्वल स्निग्ध सुधामयि शीतल किरणें लहरा उठीं अनूप॥
पूर्ण पूर्णिमा प्रकटी पावन, हु‌आ अविद्या-तमका नाश।
प्रेम-प्रभा हु‌ई उद्भासित, छाया शुद्ध सव-‌उल्लास॥
पावन यमुना-पुलिन प्रकट हो, छेड़ी मोहिनि मुरली-तान।
किया श्यामने प्रेममूर्ति व्रज-सुन्दरियोंका प्रिय आह्वान॥
भूल गयीं अग-जगको, भूलीं देह-गेहका सारा भान।
जो जैसे थी, वैसे ही चल पड़ी, छोड़ लज्जा-भय-मान॥
होता उदय मधुर रस नव-नव रूपोंमें जब कृष्णानन्द।
रुक पाता न पलक प्रेमीका तब रस-लोलुप मन स्वच्छन्द॥
नहीं खींच पाता फिर उसको भुक्ति-मुक्तिका को‌ई राग।
प्रेम-सुधा-रस-मा दौड़ पड़ता, वह सहज सभी कुछ त्याग॥
प्रियतमके प्रिय मधुर-नाम-गुण-लीला-कथा सुधा-रस मग्र।
सर्व समर्पित होता उसका, होता सहज मोह-भ्रम भग्र॥
राधा मुक्या भावमयी सब व्रजसुन्दरियाँ कर अभिसार।
पहुँचीं तुरत श्याम-चरणोंमें उन्मादिनि हो मधुर उदार॥
किया समर्पण परम मुदित-मन, सहज अखिल जीवन-‌आचार।
बनी सर्वथा एकमात्र वे प्रियतम सुख-मूरति साकार॥
सहज अमित सौन्दर्य, परम माधुर्य, अतुल ऐश्वर्यनिधान।
पूर्णकाम निष्काम सहज जो आत्माराम स्वयं भगवान॥
गोपीके उस त्यागशुद्ध रस मधुर दिव्यका करने पान।
लालायित हो उठे परम आतुर हो रसदाता रसखान॥
प्रेमीजन-मन-रजन प्रभुने किया उन्हें सादर स्वीकार।
आत्माराममयी रस-क्रीडा विविध विचित्र रची सुखसार॥
किया-कराया दिव्य परम रस-दान-पान अति कर समान।
प्रति गोपीको दिया परम सुख धर अनन्त वपु दिव्य महान॥
प्रेमभिक्षु बन स्वयं किया गोपी-प्रदा सुख अङङ्गीकार।
बोले-’प्रेमरमणियों ! यह निरवद्य तुहारा रस-व्यवहार॥
घरकी तोड़ अटूट बेडिय़ाँ तुमने मुझे भजा अविकार।
सदा बढ़ाता रखेगा यह मुझपर सुखमय ऋणका भार॥
नहीं चुका सकता मैं बदला इसका देव-‌आयु-चिरकाल।
तुहीं स्वसाधुता से कर सकतीं मुझे कभी ऋणमुक्त निहाल’॥
राधा आदि गोप-रमणी सब सुनकर प्रियतमकी यह बात।
हुर्‌ईं चकित वे लगीं देखने अपलक-दृग प्रिय-मुख-जलजात॥
देते दिव्य अनन्त परम सुख, निजको ऋणी मानते आप।
कैसा शील-स्वभाव विलक्षण, कैसा हृदय उदार अमाप॥