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कहाँ गये तुम, कहाँ छिपे / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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’कहाँ गये तुम, कहाँ छिपे ? हे नाथ ! रमण ! जीवन-‌आधार !’
विरह-प्रेम-वैचिय-विकल राधा कर उठी करुण चीत्कार॥
विषम विरह-दावानलसे हो रहा दग्ध यह दीन शरीर।
प्राण-पखेरू उड़ा चाहता, त्याग इसे, हो परम अधीर॥
यद्यपि मैं अतिशय अयोग्य हूँ, सहज मलिन, गुण-रूप-विहीन।
मान बढ़ाकर तुमने मेरा, मुझे कर दिया धृष्टस्न्, अदीन॥
लगी मानने तुहें प्राणवल्लभ, मैं मनमें कर अभिमान।
लगा, तुहें मिलता होगा मुझसे कुछ सुख विशेष, रस-खान !॥
परमानन्द-सुधार्णव तुम हो नित्य, अनन्त, अगाध, अपार।
?या आनन्द तुहें दे सकती गुण-दरिद्र मैं, दोषागार॥
तो भी तुम मुझसे मिलते हो, हृदय लगाते, देते स्नेह।
बरसाते रहते तुम संतत मुझपर प्रेम-सुधा-रस-मेह॥
कोटि-कोटि सुन्दरियाँ हैं गुण-शील-रूप-सौन्दर्य-निधान।
उन्हें छोड़, तुम मुझे निरन्तर देते रहते शुचि रस-दान॥
निश्चय ही मिलता होगा तुमको इससे अतिशय आनन्द।
मुझसे बिछुड़, हो रहे तुम उस सुखसे वचित, हे स्वच्छन्द !
विरह-वेदनासे यदि, प्रियतम ! मेरे चले जायँगे प्राण।
वचित सदा रहोगे फिर तुम इस सुखसे, प्राणोंके प्राण !
करुण विलाप करोगे फिर तुम मेरे लिये नित्य, नँद-लाल !
रह जायेंगे प्राण तो दुःख न होगा तुहें, रमण ! उर-माल !
मिलकर प्राण बचा लो मेरे अभी तुरंत परम सुकुमार !।
करो शीघ्र आनन्द-लाभ फिर, प्रियतम हे ब्रजराज-कुमार !॥
तुहें तनिक सुख होता तो रहता न मुझे प्राणोंका मोह।
कोटि-कोटि हैं प्राण निछावर तुमपर, परानन्द-संदोह !