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विषम बिछुडऩे की बेला में / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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विषम बिछुडऩे की बेलामें राधा हु‌ई उदास।
अश्रुधार बह चली दृगोंसे, चला दीर्घ निःश्वास॥
बोली करती करुणा-क्रन्दन-’मेरे प्राणाधार !।
निराधार ये प्राण रहेंगे कैसे, ?यों, निस्सार ?’॥
बदला भाव तुरंत, न जाने क्योंपलभरमें अन्य।
बोली-’हम दोनों स्वरूपतः अविरत नित्य अनन्य॥
रहे कहीं भी देह छूटता नहीं कभी भी सङङ्ग।
नित्य मिले रहते जीवनके सकल अङङ्ग-प्रत्यङङ्ग॥
हो पाता न कभी हम दोनोंका यथार्थ विच्छेद।
कर सकते न कभी, कैसे भी, देश-काल-तन भेद॥
बने तुहारे देह-प्राण-मन चरणयुगल मम प्राण !
हु‌आ तुहारे ही प्राणोंसे मेरा सब निर्माण॥
नित्य बसे रहते तुम मुझमें सहज मधुर आवास।
तुममें सहज हो रहा मेरा मीठा नित्य निवास॥
नित्य मिलनमें भी जब आती कभी विरहकी बात।
सुनते ही जल उठते सारे तत्क्षण मेरे गात’॥
इतना कहते ही आकुल हो हु‌ई पुनः बेहाल।
तन-मनमें सर्वत्र जल उठी ज्वाला कठिन कराल॥
जली लता-सी पड़ी, उठाकर रखी श्यामने गोद।
कर कमलोंसे लगे केश सहलाने मधुर समोद॥
बचन-सुधा अति मधुर पिलाकर तन लौटाया चेत।
हृदय लगाकर बोले प्रियतम माधव प्रेम-निकेत॥
’प्रिये ! मधुरतम है यह लीला-रस-वारिधिका रंग।
परम विचित्र तुहारा, इसमें उठती विविध तरंग॥
लीला-रसके ही स्वरूप दो विप्रलभ-सभोग।
नहीं वस्तुतः हु‌आ, न होगा, हममें कभी वियोग॥
दुग्ध-धवलता, अग्रि-दहनता ज्यों रवि-रश्मि अभिन्न।
त्यों-मैं तुम; तुम मैं, न करो तुम प्रिये ! तनिक मन खिन्न॥
मथुरा रहूँ, तुलसिकावन या हो को‌ई-सा स्थान।
हम दोनोंके बीच न होगा कभी रच व्यवधान॥
एक, बने दो खेल रहे हम नित्य अनादि अनंत।
मधुर दिव्य रस-मा परस्पर नित्य निरतिशय रंत’॥
राधा हु‌ई प्रसन्न देखकर प्रियतम-वदन प्रसन्न।
तत्सुख-सुखी सदा ही दोनों सहज अभिन्न-विभिन्न॥