भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब ते हरि मधुपुरी सिधाये / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:49, 17 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब ते हरि मधुपुरी सिधाये।
तब ते रहत अनमने दो‌ऊ तन-मन की सब सुधि बिसराये।
सूखी हृदय-‌अमी-रस-धारा, सूखे सकल अंग पथराये।
सूखे दृग थिर पलकहीन ह्वै चढ़े रहत मधुबन-चित लाये॥
भूषन-बसन-‌असन सब भूले, बाढ़ी जटा, केस अरुझाये।
यापी बिपुल बेदना अंतर सहमे रोम-रोम अकुलाये॥
कर दै चिबुक बिसूरति जसुमति सुरति करत नँद बदन फिराये।
देखि न सकत परस्पर दो‌ऊ उर की उर अति बिथा छिपाये॥
सूनी दृष्टि, सृष्टिस्न् सब सूनी, सून जो ब्रज ब्रजनिधि बिछुराये।
अतिहि अकिंचन भ‌ए रहत सब, स्याम-राम बिनु कछु न सुहाये॥