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ब्रज की सुरत मोहिं बहु आवै / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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ब्रज की सुरत मोहिं बहु आवै।
जसुमति-मैया कर-कमलन की माखन-रोटी भावै॥
बूढ़े बाबा नंद मोहि लै ललराते निज गोद।
हौं चढि तौंद नाचतौ, तब वे भरि जाते अति मोद॥
बालपने के सखा ग्वाल-बालक सब भोरे-भारे।
सब तजि जिन मोहि कहँ सुख दीन्हौं, कैसें जायँ बिसारे॥
व्रज-जुबतिन की प्रीति-रीति की कहौं कहा मैं बात।
लोक-बेद की तज मरजादा, मो हित नित ललचात॥
मेरे नयननि की पुतरी वे जीवन की आधार।
सुधि आवत ही प्रिय गोपिन की, बही नयन जल-धार॥
आराधिका, नित्य आराध्या राधा को लै नाम।
चुप रहि गए, बोल नहिं पाए, परे धरनि, हिय थाम॥