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ब्रज-बनितनि की महिमा न्यारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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ब्रज-बनितनि की महिमा न्यारी।
ऊधौ ! उन की मूरति छिन भर मन सौं टरत न टारी॥
वे मेरे हिय बसत निरंतर, हौं नित उन के पास।
सत्य कहौं-वे स्वामिनि मेरी, हौं नित उन कौ दास॥
परम रहस्य, सत्य अति गोपन एक दूसरौ और।
हौं ही राधा बन्यौ रहूँ नित, गोपिन कौ सिरमौर॥
लीलारत राधा ही अगनित गोपीरूप बनाय।
लीला करत रसास्वादन-हित नित्य सहज समुदाय॥
या बिधि हौं ही गोपी सब, राधा, राधा कौ प्यारौ।
रसिक, रसास्वादनरत, रसमय, तदपि न कबहूँ न्यारौ॥
उन के छीन देह कौ दुख-सुख-सब मोकूँ ही होय।
हौं ही बिरह, मिलन पुनि हौं ही, वे-हम कबौं न दोय।