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ब्रज-बनिता नहिं मो तैं न्यारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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ब्रज-बनिता नहिं मो तैं न्यारी।
मम सुख-हित करि सरबस अरपन, मो में आइ समानी सारी॥
मेरौ मन नित तिन कौ मन बनि, करत मनोहर लीला सब दिन।
मेरे प्राननि सौं अनुप्रानित, मेरौ जीवन ही तिन जीवन॥
तिन की देह, अंग-अवयव-सब मेरी लीलाके आलंबन।
नहीं पृथक कबहूँ कछु तिन कौ, अपनौ अन्य साध्य अरु साधन॥
ग्रहन-त्याग अरु भोग-मोच्छ, नहिं कर्म-अकर्म-भाव तिन के मन।
सब कछु सदा एक मैं ही, बस, नित्य प्राप्त तिन कौ जीवन-धन॥