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राधे! तुम जो अनुभव करती / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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राधे ! तुम जो अनुभव करती, लीला-रत रहती हो नित्य।
सो कल्पना नहीं है किंचित्‌, परम तथ्य है अतिशय सत्य॥
लोग देखते हैं केवल मथुरामें मेरा नित्य निवास।
किंतु तुहारा प्रियतम मैं रहता हूँ सदा तुहारे पास॥
किसी परिस्थिति, किसी स्थानमें होता नहीं कदापि वियोग।
खान-पान, व्यवहार-शयनमें रहता सदा नियत संयोग॥
नहीं घृणा-लज्जा है को‌ई, नहीं कहीं संकोच-दुराव।
एकरूपतामें कैसे कब रह सकता है भेद-छिपाव॥
नहीं एक पल भी हटता मैं, नहीं छोड़ता मधुमय सङङ्ग।
अनुपम मधुर ललित लीलाका बढ़ता नित नवीन रस-रङङ्ग॥
सदा एक-तन, सदा एक-मन, सदा एक-रस, एकाकार।
सदा बने दो, सदा बहाते पावन प्रीति-सुधा-रस-धार॥
नहीं कभी होता बिछोह है, होता नहीं कभी अलगाव।
बढ़ता नित्य मधुर रस उज्ज्वल, बढ़ता नया-नया नित चाव॥
होती नहीं कअन्ति, मिलती विश्रान्ति वरं सुखमय निर्मल।
रहती सदा अशान्ति, शान्ति अति रस-‌आस्वादिनि अविचल चल॥
नित्य नयी क्षमता है बढ़ती, नित्य नया उल्लास अथाह।
नित्य नयी आकाङ्‌क्षा अविरल, बढ़ता नित्य नया उत्साह॥
दोनों दोनोंके प्रिय-प्रियतम दोनों दोनोंके श्‌ृङङ्गार।
दोनों दोनोंके शुचि आत्मा, दोनों दोनोंके आधार॥
दोनों दोनोंके नित सङङ्गी दोनों दोनोंके हिय-हार।
दोनों दोनोंमें मिल भूले, भुक्ति-मुक्ति, अग-जग संसार॥