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मुझसे करके प्रेम, चाहता जो / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मुझसे करके प्रेम, चाहता जो उसका बदला पाना।
वह भी सुकृति पुण्यजन, जिसने मुझको फलदाता जाना॥
उससे न्नँचा वह प्रेमी है, जो निष्काम प्रेम करता।
सेवा करके मुक्ति चाहता, मायिक जगसे जो डरता॥
उससे भी न्नँचा वह मेरा प्रेमी शुद्ध हृदय प्यारा।
देते-देते मुझे मधुरतम वस्तु कभी न थका-हारा॥
उससे भी उच्च स्तरपर वह, जो सेवा करता दिन-रात।
सेवाका फल सदा चाहता, सेवाकी बढ़ती अभिजात॥
जो न किसीका दास, किसीको नहीं बनाता दास कभी।
युग-युग सेवा ही जो करता, त्याग अन्य व्यवहार सभी॥
उससे न्नँची प्रेममयी हैं वे सौभाग्यवती गोपी।
जो निज-सुखको भूल सर्वथा सबसे बढक़र हैं ओपी॥
स्नेह-राग-‌अनुराग-भावकी उठती जिनमें अमित तरङङ्ग।
जिनका मुझसे छाया सारा जीवन, सभी अङङ्ग-प्रत्यङङ्ग॥
केवल यही चाहतीं-मैं बस, रहूँ देखता उनकी ओर।
बढ़ता रहे नित्य-प्रेमार्णव, रहे कहीं भी ओर-न-छोर॥
पर राधा तो उन सबकी है दिव्याधार-भूमि भावन।
जिसके स्नेह-सुधाका है शुचि एक-‌एक कण अति पावन॥
निरवधि, नित्य नवीन, नित्य निरुपम, निरुपाधिक, नित्य उदार।
नित्यानन्त-‌अचिन्त्य-‌अनिर्वचनीय अतुल रस-पारावार॥
राधा-प्रेम परम उज्ज्वलतम विधि-हरि-हर-‌अविगत-गति रूप।
परमहंस-तापस-योगी-मुनि-मति-दुर्गम आश्चर्य-स्वरूप॥
पर इससे उसका न तनिक भी परिचय कभी हु‌आ होता।
बहता सहज तीव्र-गति मजुल मधुर दिव्य यह रस-स्रोता॥
चौंसठ-कला-चतुर स्वाभाविक, पर वह मनकी अति भोली।
नहीं जानती दभ-कपट वह नहिं बनावटी कुछ बोली॥
सहज विनम्र, सरल शुचि अन्तर, निश्छल सुधासनी वाणी।
मधुर सुधास्रावी स्वभावसे आप्यायित सब ही प्राणी॥
सदा दीखती रहती उसको निजमें दोषावलि भारी।
समझ न पाती कैसे, क्योंउससे प्रसन्न सब नर-नारी॥
मेरे प्रति क्योंप्यार उसे है पता नहीं, कैसे इतना ?
पता नहीं मैं स्वयं खिंचा रहता क्योंउसके प्रति कितना ?
चकित, किंतु अति सहज प्रेमकी बनी दिव्य वह पावन मूर्ति।
करती सदा सहज ही मेरे मनमें नव-नव रसकी स्ड्डूर्ति॥
राधा-गुण-गण विमल अमोलक रत्न विलक्षण पारावार।
जितना गहरा जभी डूबता, पाता नव-नव रत्न अपार॥
नहीं पा सका, पा न सकूँगा कभी गुण-गणोंकी मैं थाह।
बनी रहेगी राधा-गुण-निधिमें डूबे रहनेकी चाह॥
कैसे मैं ?या-?या गुण गान्नँ, ?या भेजूँ उसको संदेश।
जीवन ओत-प्रोत सदा है उसमें सभी काल सब देश॥
मेरी उस भोली-भाली प्राणेश्वरिसे यह कहना सत्य।
मधुर तुहारी ही स्मृतिमें है जीवन लगा निरन्तर नित्य॥