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तुम सम निठुर दूजौ कौन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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तुम सम निठुर दूजौ कौन?
राधिका-सी प्रेम-पुतरी रुदित छाड़ी भौन॥
बिंधि गयौ नहिं हियौ तेहि छिन कुटिल, बज्र-कठोर।
बीच धारा नाव तजि द‌इ, लै ग‌ए नहिं छोर॥
देखि आयौ, मलिन धूमिल स्वर्न-तन कृस छीन।
बिकल तड़पत दीन दिन-निसि, जल-रहित जिमि मीन॥
तजे भूषन, सकल सुबसन, अंगराग-सिंगार।
सिथिल बेनी, सुमन बिखरे, केस रूखे झार॥
बोध न्‌हिं कछु रात-दिन कौ, नहीं जल-थल-ग्यान।
आत्म-पर, मानव-‌अमानव की न कछु पहचान॥
’हा दयित! हा हृदय-बल्लभ! हाय प्रानाधार!
अश्रु-धारा बहत अबिरत, करत करुन पुकार
बिरह-ज्वाला जरत मन, तन दहत दारुन पीर।
जरी परसत कुसुम-सज्या साँस-‌अनल-समीर॥
रस-रहित उर भयौ, सू?यौ तप्त आँसू-स्रोत।
रुकत पुनि-पुनि प्रान, पुनि छिन पुनर्जीवन होत॥
’सकल सुख कारन’ कहावौ, ’जगत-जीवन’ नाम।
प्रान अबलनि के हरत, यह कहा तुहरौ काम॥
धा‌इ पहुँचौ बेगि, माधव ! करौ जीवन-दान।
मिलि अबाधित बिरह-पीड़ा हरौ सपदि महान॥
भ‌ई को‌उ न राधिका-सी, है, न आगें होय।
प्रेम-मूरति भजति तुम कौं लोक-बेदहि खोय॥