कान्ह बर मेरे जीवन-प्रान।
देखि रूप छूट्यौ जग सारौ, रह्यौ न कछु संधान॥
वे ही अब सब तन-मन मेरे, वे ही जीवन-जीवन।
नयननि की पुतरी वे मेरी, वे ही हिय कौ स्पंदन॥
मोहि सिख दैबे में सखि! क्यों तुम करौ समय बरबाद।
रूप-सुधा पी भई बावरी हौं, टूटी मरजाद॥
भूलि जाहु मो कूँ तुम सब अब, कुल की जानि कलंक।
हौं हूँ परी रहूँ पगली ह्वै, प्रियतम के प्रिय अंक॥
कट्यौ लोक-बंधन सब सहजहिं, रह्यौ न कोउ परलोक।
चरननि नित्य बसाय लई प्रिय, रह्यौ न चिंता-सोक॥
पास रहूँ वा दूर, नित्य वे रहते मेरे पास।
भयौ नित्य संबंध तिनहिं ते अमिट-अटूट-अनास॥