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रूप अनूप सुधा-रस-सागर / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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रूप अनूप सुधा-रस-सागर निरुपम प्रियतम नन्द-किशोर।
अगणित ब्रह्मानन्द-विनिन्दक परमानन्द चरम चित-चोर॥
मन्द मधुर मुसकाते मुझको दीखे जब वे ललित त्रिभंग।
धुले सभी मल, शान्त हु‌आ मन, तत्क्षण हु‌आ आवरण-भंग॥
टूटी हृदय-ग्रन्थि तत्क्षण ही, खुला कचुकी-बन्ध तुरंत।
निरावरण सब अंग हो गये, आया व्यवधानोंका अन्त॥
अनिमिष, स्पन्दरहित लोचन-‌अलि करते रूप-जलज-मधु-पान।
सेवा-सुख-निमग्र देहेन्द्रिय, सहज भूल सब जगका भान॥
चिदानन्द-रसमय प्रियतममें मिल मैं हु‌ई सदेह विदेह।
रहा नहीं संकल्प जगत का, नष्ट हु‌ए समूल संदेह॥