गुलाम 1 / रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
वो तो देवयानी का ही मर्तबा था,
कि सह लिया सांच की आंच,
वरना बहुत लंबी नाक थी ययाति की।
नाक में नासूर है और नाक की फुफकार है,
नाक विद्रोही की भी शमशीर है, तलवार है।
जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,
ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है।
और ये गिरे तो आदमीयत का मकीदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो बलंदियों का पेंदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो मोहब्बत का घरौंदा गिर पड़ेगा,
इश्क और हुश्न का दोनों की दीदा गिर पड़ेगा।
इसलिए रहता हूं जिंदा
वरना कबका मर चुका हूं,
मैं सिर्फ काशी में ही नहीं रूमान में भी बिक चुका हूं।
हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत।
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है।
सूलियां ही हर जगह हैं, निज़ामों की निशान,
हर जगह पर फांसियां लटकाये जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है,
जिंदा जलाया जा रहा है,
खोदा-गाड़ा जा रहा है।
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं,
ये कलम है, सरहदों के पार भी नगमे लिखे हैं।