भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुतकारो-डाँटो सदा / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:10, 3 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुतकारो-डाँटो सदा, करो घोर अपमान।
सुख सब छीनो, दुःख दो, मार करो बेभान॥
कभी न निकलेगी जरा मेरे मुखसे आह।
यही कहूँगी बिहँस मैं-’वाह, वाह, प्रिय! वाह’॥
तुमने अपनी वस्तुको बरता मन-‌अनुसार।
छोड़ा-बिसराया नहीं यह क्या थोड़ा प्यार?
जो मन भाये, सो करो भला-बुरा व्यवहार।
पर मन में रखो सदा, यही करो इकरार॥