भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मरुथल में बदली / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:11, 9 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |अनुवादक= |संग्रह=मरुथल / अज...' के साथ नया पन्ना बनाया)
घिर आयी थी घटा नहीं पर बरसी चली गयी।
आँखे तरसी थीं
भरी भी नहीं छली गयीं।
दमकी थी दामिनी परेवे
चौंक फड़फड़ाये थे गोखों में
अब फिर चमक रही है रेत।
कोई नहीं कि पन्थ निहारे।
सूना है चौबारा।