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तवील जितना सफर ग़ज़ल का / देवी नांगरानी

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तवील जितना सफ़र ग़ज़ल का
कठिन है मंज़िल का पाना उतना

ये कैसी ख़ुशबू है सोच में भी
कि लफ़्ज़ बन कर गुलाब महका

कभी अंधेरों के सांप डसते
कभी उजाला न मन को भाता

वो चुलबुलाहट, वो खिलखिलाहट
वो मेरा बचपन न फिर से लौटा

कहीं तो मिलती नहीं है फि़तरत
तो दिल से दिल भी कहीं है जुड़ता

है दीप मंदिर का ये मेरा दिल
जो भक्ति के तेल से है जलता

ये झूठ इतना हुआ है हावी
कि सच भी आकर गले में अटका

गुमाँ हुआ ये क्षितिज पे 'देवी'
जमीं पे यूँ आसमाँ है झुकता