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गहराइयों में दिल की दुनिया नई बसी है / देवी नांगरानी

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गहराइयों में दिल की दुनिया नई बसी है
रेशम के जाल कितने अब तक वो बुन चुकी है

हस्ती ही मेरी तन्हा इक द्वीप-सी रही है
चारों तरफ है पानी, फिर भी बची हुई है

जज़्बात हो रहे हैं अहसास में नुमायाँ
रिश्तों की रेख-रेखा कितनी उलझ रही है

घेरा है मस्तियों ने तन्हाइयों को मेरी
महसूस हो रहा है फिर भी कोई कमी है

ठेस और ठोकरों का ये सिलसिला है जारी
हर बार बचके ‘देवी’ हँस-हँस के रो पड़ी है

अब रुह में उतरकर मोती समेट ‘देवी’
दिल सीप बन गया है और सोच भी खुली है