भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चूल्हे का दुख / हरिओम राजोरिया
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:16, 28 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिओम राजोरिया |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मेरे धुएं के उस पार
कांपते हुए कुछ चेहरे हैं।
मैं अपराधी हूँ एक स्त्री का
जो निकालती है मेरे भीतर से राख
धो पोंछकर सुलगाती है मुझे
और घंटो बैठी रहती है अकेले
मेरे न जल पाने की चिंता में
कैसे कहूँ डरता हूँ
उसकी चूडियों की खनक से
मेरे काले रंग में घुल रही है
उस अकेली स्त्री की उदासी
मै अपराधी हूँ उसका
जो बार-बार फेरती है
पीली मिट्टी का पोता
और मैं हर बार
दीवारों पर छोड जाता हूँ कालिख़।