भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रगटे अभिराम स्याम रसिक / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:42, 30 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)
प्रगटे अभिराम स्याम रसिक ब्रज-बिहारी।
बृंदावन नंद-भवन जन-मन-सुखकारी।
हरन विषम भूमि-भार, करन दुष्ट-दल-उधार।
सरन संत-जन उबार, अखिल अघ-बिदारी॥-प्रगटे०॥
मुदित भए प्रेमी जन, संत भए निर्भय मन।
डरे सकल खल-दुर्जन, अघी-अनाचारी॥-प्रगटे०॥
आनँद अपार छयौ, दुःख-सोक-कुडर गयौ।
गोकुल अब अतुल भयौ, उदये अवतारी॥-प्रगटे०॥
बरस्यौ रस-मेह अमित, रस-सरिता बही अजित।
चली सकल पवन-हित, अग-जग-हितकारी॥-प्रगटे०॥
सब कें अति हिय हुलास, नंद-सुअन-दरस-आस।
दौरे तजि-तजि निवास, आतुरता भारी॥-प्रगटे०॥
पहुँचे नँद-महल हाल, दरसन करि अति निहाल-
भए सकल ग्वालि-ग्वाल, पुलक अंगझारी॥-प्रगटे०॥
पायौ सब सुख अपार, उतर्यौ सब मोह-भार।
तन-मन सब दिए वार, गोकुल-नर-नारी॥-प्रगटे०॥