भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्यामघन दामिनि प्रगट भई / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:11, 30 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)
स्यामघन दामिनि प्रगट भई॥
रस-नृप रसिक-रिझावनि पावनिरया सुरसमई।
अंग-अंग अतुलित श्री-शोभा कोटिक रति लजई॥
सकल-विस्व-आकर्षक-अकर्षिनि छबि सौंदर्य छई।
नित्य पराजित रहत सहज जो अखिल जगत बिजई॥
परम सती प्रिय-सुख-कामिनि नित निज सुख बिसरि गई।
रूप-रासि गुन-रासि अमित सुचि प्रगटत नई-नई॥