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पांव भर बैठने की जमीन / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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यहां अब नहीं हो रही हैं सेंध्मारियां
बगुले लौट रहे हैं देर रात अपने घोसले में
पहुंचा रहे हैं कागा परदेश तक संदेशा
कई सालों से गूंजी नहीं है
उल्लुओं की चीत्कार
किसी वारदात का वहां अता-पता तक नहीं
चमघींचवा खुश दिख रहा है इन दिनों
उध्ेड़ते हुए मरे पशुओं की आखिरी खाल
हड्डी बीनने वाले लोग
अदहन पर चढ़ी दाल में नमक सिझा रहे हैं
राह चलते पेड़ के पत्ते झड़ने लगे हैं
खेतों में दम तोड़ती नदियां
सोख ले रही हैं पहली ही घूंट में पानी की धर
बादलों के टुकड़े
बझ रहे हैं आंख मिचौनी के खेल में
मकई की लंबी गांछों की ओट में दुबका
कोई भूल नहीं पाता गांव की पतली पगडंडी
कबूतरों के झुंड आकाश में घूमने चले जा रहे हैं
क्षितिज के पार सुनने लहरों का संगीत
गेंहूं के चौड़े खेतों के बीच
नहीं दिखता बिजू का तना हुआ लोहबान
मेंड़ों पर जाते ही उतर आयी है
पशुओं की तीखी भूख
खाली शाम में अब किसान
बतरस में नहीं उलझे हैं इन दिनों
वे गुनगुना रहे हैं धन ओसाने के गीत
सुनाई देने लगी है शिवाला से
घंटियों के टुनटुनाने की आवाज
वैसे ही लौट रही हैं आस्था की पुरानी यादें
चलें हम भी लादे कन्धें पर उम्मीदों के पठार
जैसे मुंह अंधेरे में उड़ती चिड़िया
आखिर खोज ही लेती है
पांव भर बैठने की जमीन।