भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पल भर के लिए / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:48, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पल भर के लिए
नहीं थी उनके लिए
कोई टाट की झोपड़ी
या फूस-मूंजों के घोंसले
वे पंछी नहीं थे
या, कोई पेड़-पौधे
हल जोतकर लौटते हुए मजदूर थे
टूट-बिखर कर गिरते हैं
जैसे पुआलों के छज्जे
ध्माकों से उसी तरह
वे पसर गये थे
पोखरे के किनारे पर
ओह! पल भर के लिए
ईख में के छुपे दैत्य
बंद कर दिये होते अपनी बंदूक
वे कुछ भी हो गये होते
आंधी-पानी या खर-पात
जरा-सा के लिए भी
अगर छा गया होता धुंध्लका