भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कथन / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:56, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आसान तो बिल्कुल नहीं
पार हो जाना खिड़कियों से
टहलता चांद अब दुबका था
काले बादलों के मेले में खोया
ट्रापिफकों का शोर
खुरच देता मौसम का गुनगुना स्वभाव
बसों में हिचकोले खाती
टूट चुकी होती सुबह की भूखी नींद।
घर गांव से दूर भी हो सकता था
जैसे दीखता है अकेले पटिये पर
पसरा बांस का किला
पहाड़ तोड़ते बारूद की चमक से
बचाया जा सकता था आंख-कान
सुना जा सकता था
बीहड़ घाटियों में मचा चिड़ियों का शोर
ठेकेदार के कुत्तों से
छिपायी जा सकती थी दो जून की रोटियां
खेला जा सकता था
धूल-कीचड़ में सने बचपन में खेल
घिसते-पिटते पत्थरों की दुनिया से
लौटा जा सकता था किसी भी रात।