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आओ विनय कुमार / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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आओ विनय कुमार
चलो कहीं दूर चलें
चलें ‘मुक्तिबोध के कोलतार पथ’ से निकलते हुए
गांव की कच्ची पगडंडियों की ओर
क्या चलोगे
देखने कैमूर की पहाड़ियां
पर ले लेना एक मशाल, बंधु
क्योंकि वहां पर दिन-दहाड़े घूमते हैं भेड़िये
मगर देखते ही चलना
सोन के बहते जल में छुपकर रहते हैं घड़ियाल
बचकर पकड़ना रास्ता
ये दबोचकर आंसू बहाना भी खूब जानते हैं
तुम देखोगे पहाड़ों की तानाशाही
जो रोक लेंगी राहें
शिखरों की सीनाजोरी

उफपर नहीं उठने देंगी तुम्हें
और बंदूकों की आवाजों से डरी
खून से बोथाई नदियों को
देखकर मत डर जाना तुम
यहां तो ऐसे ही होता है अक्सर
अगर तुम थक गये होगे चलते-चलते
तो कर लो जरा आराम
दूर-दूर तक पफैली हुई गंगा की रेत पर
पर देखना कहीं ढंक न ले तुम्हें
उध्र से आती बवंडर की धूल
अब तो विनय कुमार
हमें तोड़ने ही होंगे
व्यवस्था के ये डील-डाबर
व्यवस्था ही होंगी गचकियां
करना ही होगा आह्वान
उठाने ही होंगे
कविता के खतरे।