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बदलते युग की दहलीज पर / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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तुम्हारे गांव में
कब आया था बसंत
कब फूटी थी बांसों में कोंपलें
कब उगे थे धतूरे के उजले फूल
कब पकी थीं आमों की तीखी गंधित बौरें
कब पहुंचा था नहर का खारा पानी उन खेतों में
जिस जमाने में
गांवों जैसे बनने को आतुर हैं शहर
और शहरों जैसे गांव
जिन घरों में बजती थी कांसे की थाली
गूंजते थे मंडप में ढोल की थाप
जिस जमाने में गाये जाते थे
होरी-चैता-कजरी के गीत
कहीं बैठती थी बूढ़ों की चौपाल
खलिहान और खेतों में
कम होते जा रहे हैं बोझे के गांज
तपती दुपहरी की थका देने वाली राहों में
अब कहीं नजर नहीं आता पंचपफेंड़वा आम
पानी-पानी को तरसते राहगीरों को
कहीं नहीं दिखता मिठगर पानी भरा बुढ़वा इनार
फल-पातों से लदे हुए बाग-बगीचे अब नजर नहीं आते
बदलते युग की इस दहलीज पर
मानचित्रा के किस कोने बसा है तुम्हारा गांव
किन सड़कों से पहुंचा जा सकता है उस तक?
यह कि उन गांवों तक जाने वाले लाठ-छवर
दूर-दूर तक अब मुझे नजर नहीं आते तुंभरा।