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उपदेशसाहस्री / उपदेश २ / आदि शंकराचार्य
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प्रैषेद्धुमशक्यत्वान् नेति नेतीति शेषितम्।
इदं नाहमिदं नाहमित्यद्धा प्रतिपद्यते॥
इदंधीरिदमात्मोत्था वाचारम्भञगोचरा।
निषिद्धात्मोद्भवत्वात् सा न पुनर्मानतां व्रजेत्॥
पूर्वबुद्धिमबाधित्वा नोत्तरा जायते मतिः।
दृषिरेकः स्वयंसिद्धः फलत्वात् स न बाध्यते॥
इदंवनमतिक्रम्य शोकमोहादिदूषितम्।
वनाद् गन्धारको यद्वत् स्वमात्मानं प्रपद्यते॥