भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राम-लखन नृप-सु‌अन दो‌उ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:34, 10 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राम-लखन नृप-सु‌अन दो‌उ राजत कौसिक संग।
     रूप-सुधा-सौंदर्य-निधि उमगत अंग सु‌अंग॥
दामिनि-बारिद-बर-वरन, तेज-पुंज रस-रंग।
     नख-सिख सुंदर निरखि छबि मोहे अमित अनंग॥
धनु-सर कर, केहरि-ठवनि, कटि पटपीत-निषंग।
     मुनि मख-राखन, भय-हरन, बिरमत सदा असंग।
बिकट कुटिल मारीच मति नीच सुबाहु भु‌अंग॥
     उभय जीति, मुनि जग्य कौं सफल कर्‌यो सब अंग॥