भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माला / कालीकान्त झा ‘बूच’
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:09, 18 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कालीकान्त झा ‘बूच’ |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सुरभित अहँक सिनेहक माला
जनम - जनम जपि रहब विपटतर
राखू बन्न अपन मधुशाला
देवि, सुखक परबाहि न हमरा
मिलनक अल्पो आहि न हमरा
हम नर दुःखकाटब धरती पर
अपने बनलि रहू सुरवाला
सुन्दरि अहाँ अकाशी गंगा,
हम भूमिक प्यासल भिखमंगा
युग-युग बरू बौरायब मरू मे
अइॅठायब नहि पावन प्याला
सुरभित अहँक सिनेहक माला
नहि श्रृंगार रौद्र हुंकारे
हम एहि पार, अहाँ ओहि पारे
दुहुक बीच कठोर कर्तव्यक-
भरल अथाह भयंकर नाला
सुरभित अहँक सिनेहक माला