भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बनती-बिगड़ती इस दुनिया में / सविता सिंह
Kavita Kosh से
Linaniaj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:27, 28 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सविता सिंह |संग्रह=नींद थी और रात थी / सविता सिंह }} कहीं ...)
कहीं से नहीं आती हवा
नहीं आते सन्देश मौसम के
चिड़ियों के दिलों में जैसे सन्देह भर गए हैं
निढाल हो चुकी है पृथ्वी के घूमने की उत्तेजना
एक चुप भी नहीं है
जो बैठी हो गम्भीर कोई अर्थ छिपाए
बस बेचैनी है नितान्त अकेलेपन की
एक असह्य निनाद भीतर
बनती-बिगड़ती हुई इस दुनिया में