भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आग के फूल / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:59, 11 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष मुखोपाध्याय |अनुवादक=रणजी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तूफ़ान सिर पर ढोये, आ रहे हैं हम।

अपने बिबाई-फटे कीचड़सने पाँवों में
और शान चढ़ानेवाले पत्थर में
आग के फूल बटोर
आ रहे हैं हम।

पहले हमारी आँखों में थे आँसू
अब है आग
हाड़-पिंजर से दीखनेवाले लोग
अब
वज्र तैयार करनेवाले कारखाने हैं।

जिनकी संगीनों में से चिलक रही है बिजली
वे सामने से हट जाएँ।
हमारे लम्बे-चौड़े कन्धे की ठोकरों से
गिर रही हैं दीवारें टूट-टूटकर।
दूर हटो!

हम सारा गाँव ख़ाली कर आ रहे हैं
ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे।