भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाना ही है / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:05, 11 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष मुखोपाध्याय |अनुवादक=रणजी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौन जा रहा है?
-हम लोग!

हम गाँव के लोग
हम शहर के लोग
हाड़-जिंजरवाले लोग
जा रहे जुलूस में।

हाथ में क्या है?
-झण्डा।

कहाँ जा रहे?
-दमनकारी राजा के
दरबार।

रुको
-नहीं
अगर ज़बर्दस्ती रोका गया
-नहीं!
संगीनांे से बींधा गया
-तो भी नहीं!

मत रोको रास्ता
हमें जाना ही है
-जुलूस में।


हम जाएँगे

पानी के नलके की
टिप् टिप्।

अभी-अभी
बर्तन धोये पानी में
अपना चेहरा देखेगा
धुएँ से धुँधलाया
कोई एक और सवेरा।

इस बीच पथराया अन्धकार
दीवार पर पटक-पटककर सिर दम तोड़ जाए
और हम पानी के नलके में सुन पाएँ
भौंचक आसमान के नीचे
पथरीली कंकड़ियों पर नाचती-फुदकती
एक दिशाहीन, छोटी-सी चंचल नदिया की कलकल।

इसके बाद दिन भर
आदमी अपने पाँव में चक्के बाँधकर चलता रहे
वहाँ जहाँ ‘वन्दे मातरम्’ कहते हुए लोगों ने
अपने जीवन का बलिदान किया था
कटे हाथ के साथ जहाँ काठ के पाँव
चला करते हैं।

पानी के नलके की टिप् टिप्
टिप् टिप्

हमने कहा था-जाएँगे
समुद्र की ओर।

नदी ने कहा था-वह जाएगी
समुद्र की ओर।
हम सबने कहा था-जाएँगे
समुद्र की ओर।
हाँ, हम जाएँगे।