भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चुपके-चुपक आ रही है घातक रात / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:03, 19 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)
चुपके-चुपक आ रही है घातक रात,
गत बल शरीर का शिथिल अर्गल तोड़कर
कर रही प्रवेश वह अन्तर मंें,
हरण कर रही है जीवन का गौरव रूप।
कालिमा के अक्रणम से पराजय मान लेता मन।
यह पराभव की लज्जा, अवसाद का अपमान यह
जब हो उठता है पुंजीभूत
सहसा दिखाई देती है दिगन्त में
स्वर्ण किरणों की रेखा अंकित दिन की पताका।
आकाश के न जाने किस सुदूर केन्द्र से
उठती है ध्वनि एक, ‘मिथ्या है, मिथ्या है ।’
प्रभात के प्रसन्न प्रकाश में
देती दिखाई है दुःख विजयी प्रतिमा एक
अपने जीर्ण देह दुर्ग के शिखर पर।
‘उदयन’
27 जनवरी, 1941