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अति लौने सखि! लली-ललन री! / स्वामी सनातनदेव
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राग कामोद, धमार 26.9.1974
अति लौने सखि! लली-ललन री!
कहा कहौं तिन की सुघराई, लखि लाजहिं रति-कोटि मदन री।
दोउ की रति दो उनमें अति अनुपम, दोउ के मन दोउ की उरझन री।
दोउ पृथक हूँ नित अपृथक् सखि! दोउ को दोउ की लगी लगन री॥1॥
दोउ चकोर दोउ चन्द्र परस्पर, दोउ के दोउ में लगे नयन री।
दोउ सरोज दोउ सरवर नीके, दोउ के तन में एकहि मन री॥2॥
प्रीति पगी अनुपम यह जोरी, प्रीति स्वयं धारे द्वै तन री।
प्रीतिमयी कलकेलि दोउन की, करहिं प्रीति हीको वितरन री॥3॥
कहा कहें सुहाग सखि अपनो, जिन पाये ये प्रीति-रतन री।
हमहूँ रंँगी प्रीति के रँगमें, भूलि गयी तन मन जन धन री॥4॥
सब कछु दै हमहूँ सब पायो, रह्यौ कहा अब करन-धरन री।
सब के फल, सबके सरबसु हैं, सखि ये स्यामा स्याम-बरन री॥5॥