भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुव मुख-कमल-मधुप मोरे नैना / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:19, 24 नवम्बर 2014 का अवतरण
राग भूपाली, तीन ताल 19.6.1974
तुव मुख-कमल मधुप मोरे नैना।
रसि-रसि रूप-माधुरी पल-पल, पलक झपन की सुधिहुँ रहै ना॥
पलहूँ ओट होय जब वह छवि ललकि-ललकि कल पलहुँ परै ना।
अरबराय उत ही उत धावहिं, नहिं पावहिं तो नीर थमै ना॥1॥
निरखि-निरखि निरखन ही चाहें, निरखत हूँ कछु चैन परे ना।
चयनन ही में उरझि रहें तो सुरझन की फिर सुधिहुँ करैं ना॥2॥
कहा कहों वा छबिको टोना, पलहूँ सो हियसों विसरै ना।
दिये हाय! नयना बस दो ही, विधनासों कछु बसहुँ चलै ना॥3॥
बिनु बाँधे हूँ बँधे रहहिं तहँ रोके रुकहिं न, लगेे फिरै ना।
या सुख में रचि-पचि अब प्रीतम! उनहिं और कोउ रसहुँ रुचैना॥4॥